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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

इधर-उधर की बात

 

(1)


तमाम गार्मेंट्स फैक्टरी में औरतें कितने घंटों काम करती हैं। आठ? दस? बारह? या इससे भी ज़्यादा? ये गाँव-शहरी बस्तियों की निरक्षर, दरिद्र औरतें होती हैं। सुबह-सवेरे जब अमीर या आधे अमीर रमना रेसकोर्स, संसद भवन में बदन की चर्बी घटाने के लिए दौड लगाते हैं, ये औरतें उस वक्त, हाथ में टिफिन कैरियर झलाए उन लोगों के सामने से गुज़रकर फैक्टरी पहुँचती हैं। वैसे उन लोगों को चर्बी घटाने की कोई जल्दी भी नहीं है। उन लोगों की देह पर चर्बी जमने की कोई गुंजाइश भी नहीं है और न ही उन लोगों के पास इतनी फुर्सत है कि जिंदा रहने के मोह में शारीरिक कसरत करें। वे लोग दिन भर मेहनत करके, मुट्ठी भर दाल-भात जुटाने के लिए पैसा कमाने जाती हैं। दिन भर के बाद शाम या रात को। थकी-हारी देह को खींचते-घसीटते घर की तरफ चल पड़ती हैं। आमोद-आह्वाद में वक्त गुज़ारने की उन लोगों को फुर्सत ही नहीं होती। वे लोग घर पहुँचकर, भात राँधेगी, घरवालों को खिलाएँगी। पतीली की तलछट के तौर पर कुछ बचाखुचा रहा तो खुद खाएँगी। अगले दिन फिर सुबह होते ही फैक्टरी की तरफ दौड़ पड़ेंगी। यह जो वे लोग दस-बारह घंटे जी-तोड़ मेहनत करती हैं। बदले में उनलोगों को क्या मिलता है? निर्यात के फायदे में उन लोगों को कितना-सा मिलता है? हिसाब-किताब किया जाए, तो क्या नज़र आता है? जिन लोगों की मेहनत के बदले में बंगलादेश, विदेशी मुद्रा अर्जित करता है, वे लोग अपने दस-बारह घंटे की मेहनत देकर, महीने के अंत में आखिर क्या पाते हैं? उन्हें जो मिलता है, उस रकम से क्या उनको महीने भर दाल-भात नसीब हो सकता है? उनका गुज़ारा हो सकता है? मेरा ख्याल है, नहीं हो सकता। अपनी तनखाह बढ़ाने के लिए संघर्ष उन्हीं लोगों को करना होगा और हमेशा के लिए और एक इंतजाम करना भी बेहद ज़रूरी है। वह है-हर गार्मेंट फैक्टरी में औरतों की शिक्षा-दीक्षा का इंतजाम करना! फैक्टरी के मालिक, अगर हर दिन कम से कम दो घंटे का इंतज़ाम कर दें। कामगार औरतों को बांग्ला, अंग्रेजी, गणित, साधारण ज्ञानविज्ञान की पढ़ाई का इंतजाम कर सकें तो मेरा ख्याल है कि यह एक ऐसी उल्लेखनीय घटना होगी, जो पिछली एक शती में निम्नवित्त औरतों की जिंदगी में जितनी तरक्की नहीं हुई, वह अब संभव हो जाएगी। औरतों को शिक्षित बनाने की और कोई राह तो मुझे नज़र नहीं आती। कर्मजीवी महिलाओं को घर-बाहर, अपनी स्वाधीनता और अधिकार रक्षा के लिए सजग रहने को प्रेरित करना बेहद जरूरी है! ये लोग जब काफी रात गए घर लौटती हैं, गली-सड़क के बदमाश छोकरे, जब उनका पीछा करते हैं, तो उन पाजियों की जबड़ों पर निशाना साधकर वार करने में ये औरतें हरगिज न हिचकिचाएँ; सारी की सारी कर्मठ औरतें एकजुट होकर तनकर खड़ी हो जाएँ। वे लोग अपनी महीने भर की तनखाह अपने बर्बर, आलसी. मक्कार पति के पीछे खर्च न करें। जो-जो काम उन्हें करना ही होगा-इस बात पर जो औरतें विश्वास करती हैं या लोगबाग के बातें बनाने के खौफ से करती हैं, वे लोग न करें। इन सबके बारे में औरतों को सलाह देने के लिए, फैक्टरी में मानवाधिकर के मामले में किसी सजग शिक्षक की ज़रूरत है! सिर्फ शिक्षा ही नहीं, औरतों की सेहत की भी सुरक्षा ज़रूरी है। औरतों को नियमित चिकित्सा मिलती है। मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं चंद ऐसी महिला मजदूरों को जानती हूँ, जिन्हें उनकी बीमारी में छुट्टी तो नहीं ही दी जाती, बल्कि जितने दिनों वे लोग नहीं आ पातीं, उनकी तनखाह भी काट ली जाती है! उच्चवित्त, निम्नवित्त का शोषण करते हैं, यह कोई आज की घटना नहीं है। लेकिन ऐसा निर्लज्ज शोषण, ऐसे सभ्य युग में आँखों को बेतरह चुभता है। ये गार्मेंट फैक्टरियाँ करोड़ों-करोड़ों टके कमा रही हैं, अपने मजदूरों के लिए निवास और जानेआने का इंतज़ाम करना, उन फैक्टरी-मालिकों का नैतिक दायित्व है। वे लोग बड़े सस्ते में मजदूर पा जाते हैं; दो पैसा खर्च करके, लाखों-लाखों करोड़ टके कमा रहे हैं। मुमकिन है कि वे लोग काफी उदार नहीं हो पाते। उदार होना, कारोबारियों के चरित्र में ही नहीं होता। लेकिन थोड़ा-बहुत उदार तो उन लोगों को होना ही होगा, वर्ना वे लोग खुद अपनी जेबें भरते रहेंगे, लेकिन जो लोग उनकी जेबें भरने में मददगार हैं, उनकी जेब में वे लोग कुछ भी न डालें-ऐसा कैसे हो सकता है?

(2)


आजकल घर में काम करनेवाली औरतों की हत्या, नित्य-नैमित्तिक घटना हो गई है। काम करनेवाली बाई ने फ्रिज खराब कर दिया, चोरी की और इस महा-अपराध में घर के मालिक या मालकिन ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। गरीब का मरना, कोई खास बात नहीं होती। वह मर गई, तो क्या? न मरी, तो क्या उसके जिंदा रहने में कोई फायदा तो है नहीं। इसलिए दौलतमंद लोग शौकिया ही, काम करनेवाली औरत के सिर पर अनायास ही दाँव या पहसुल का कोप बिठा देते हैं। अख़बार के पहले पन्ने पर उन लोगों की तस्वीर छपती है। लोग-बाग़ दो दिन उनके नाम पर छिः-छिः करते हैं, उसके बाद सारा कुछ मिट-मिटा जाता है।

कमज़ोर पर बलशाली का शोषण कब बंद होगा, इसका कोई हिसाब-किताब तो हम नहीं दे सकते। ऐसा संभव भी नहीं है। लेकिन ऐसा कोई इंतज़ाम तो किया जा सकता है या नहीं कि रिहायशी घर में काम के लिए किसी को नियुक्त करना नहीं चलेगा? अपनी-अपनी गृहस्थी का कामकाज वे लोग खुद कर लेंगे? मुझे मालूम है, इस दरिद्र देश में यह संभव नहीं है, फाके करते, भूखे-उजड़े लोग दरवाजे-दरवाजे घूमेंगे ही। ये औरतें शोषित होने के लिए घर-घर नियुक्त की जाएँगी। उसके बाद या तो उनको बेमौत मरना होगा या उन्हें घर के मालिक के बलात्कार का शिकार होना पड़ेगा या फिर समूची जिंदगी गुज़ार देने के बाद, बिना किसी सहारे के, सम्बलहीन, कर्मक्षेत्र से निकाल दी जाएंगी। मेरी राय में, इससे बेहतर है कि सरकारी या गैर-सरकारी उद्योगों में अनिवार्य रूप से महिला-मजदूर ली जाएँ, तो औरतें मरने के लिए घर-घर काम करने, हरगिज नहीं जाएँगी। इससे उन लोगों के सम्मान की भी रक्षा हो जाएगी और गरीबों को मारने के लिए, जिन लोगों के हाथ खुजलाते रहते हैं, उन लोगों को ही गरीबों की गर्दन आसानी से हाथ नहीं लगेगी। वे लोग भी जेल जुर्माने से, एक तरह के छुटकारा पा जाएँगे।

(3)


इन दिनों सरकार ने इस किस्म का हुक्मनामा तैयार किया है, कि इस देश में सभी अख़बार आ सकते हैं, सिर्फ कलकत्ता की 'देश' पत्रिका को छोड़कर! 'देश' किस जुर्म का अपराधी हो गया, अब यह मेरे लिए अस्पष्ट नहीं है। इस देश में अब मनोरमा, प्रियदर्शिनी, टेलीदर्शन वगैरह का प्रवेशाधिकार वैध कर दिया गया है। अब, हम एक पल को ज़रा सोच देखें कि मनोरमा, प्रियदर्शिनी वगैरह किस स्तर की पत्रिकाएँ हैं और 'देश' पत्रिका किस स्तर की है? असल में 'देश' ऊँचे स्तर की पत्रिका है। इसलिए इस पर रोक लगाई गई है, ताकि यहाँ के पाठक चिंतन-मनन और मेधा में, रुचि और शुचि में कहीं ऊँचे न हो जाएँ। हल्की-फुल्की पत्रिकाओं में अवाम डूबी रहे, इसमें सरकार को कोई आपत्ति नहीं है, इसलिए इस देश में हल्की-फुलकी पत्रिकाओं को आने देने में कोई बाधा नहीं डाली गई। और चाहे जो हो, सरकार जनगण को रुचिवान और बुद्धिमान होने देने को राजी नहीं है।

इस हुक्मनामे में और भी एक प्रसंग है-इस देश में कोई भी फ़िल्म आ सकती है, सिर्फ उपमहादेशों की भाषाओं के फिल्म के अलावा! यानी बांग्ला, हिंदी वगैरह अब वैध नहीं रहीं। असल में, यह सब, वीडियो दुकानों से पुलिस के लिए रुपए कमाने का एक अच्छा-खासा तरीका बन गया है। इन फिल्मों को 'डिस्प्ले' से हटाकर, सारा कुछ मेज़ में छिपाकर रखा जाता है। पुलिस को अगर 'दक्षिणा' टिका दी जाती है, तो वे लोग मेज़ के अंदर झाँककर नहीं देखते। निरीह 'पब्लिक' मेज़ के अंदर छिपाई चीज़ को ऊँचे दाम पर किराए पर लेती है।

(4)


अभी भी शहीद मीनार के सामने, रंग पोतकर नष्ट कर दिए गए रवींद्रनाथ, नजरुल, सुकांत, रामनिधि गुप्त, जीवनानंद की वाणी मौजूद है। ये सब क्या यूँ ही तबाहहाल रहेंगे या इनके सुधार-संस्कार का क्या कोई उपाय नहीं है? इसकी सुरक्षा का क्या कोई तरीका नहीं है? सिर्फ दीवारों पर ही नहीं, सड़कों के मोड़ पर बड़े-बड़े डिस्प्ले बोर्ड टाँगे जाएँ, उन पर भाषा को प्यार करने के बारे में प्रचार-प्रसार करना होगा, ताकि आते-जाते लोगों की उन पर निगाह पड़े ताकि सिर्फ शहीद मीनार के सामने पहुँचकर ही भाषा की याद न आए। भाषा को प्यार करने का और भी गहरा अर्थ यह है कि एक ही भाषा-भाषी लोगों में आपसी प्यार! 'बांग्ला के हिंदू, बांग्ला के बौद्ध, वांग्ला के ईसाई, बांग्ला के मुसलमान-हम सब हैं बंगाली!' जब तक यह सच्ची बात, तमाम लोगों के दिल में न बस जाए, तब तक भाषा-स्मारक पर फूलों की चाहे कितनी भी भारी बरसात की जाए, कोई फायदा नहीं होगा। उतने दिनों तक इक्कीस तारीख आएगी-जाएगी। बड़ी-बड़ी सभाएँ सेमिनार होते रहेंगे, लेकिन साम्प्रदायिकता की आग नहीं बुझेगी। मुझे तो कभी-कभी यह आशंका होती है कि इस आग में किसी दिन शहीद मीनार भी जलकर खाक न हो जाए।

(5)


काजी इब्ने रूशद ने लिखा है-'शरीयत में दो तरीकों से यौन तृप्ति का सुख जीने को वैध किया गया है। एक, विवाह करना; दो, ज़रखदीद दासी रखना। इन दो उपायों के अलावा, अन्य किसी भी उपाय से यौनसुख जीना, हलाल नहीं हो सकता।' (मुकद्दामाता इब्ने रूशद-अल मातबुआ मा अल मुकावानतिल कुबरा द्वितीय खंड, पृष्ठ 21-22)

दासी, गृहकर्ता के भोग के लिए वैध है। यह हमारी आधुनिक, शिक्षित और धार्मिक महिलाएँ, कतई कबूल नहीं करना चाहतीं। उन लोगों का कहना है-इसकी ज़रूरत उस ज़माने में थी, इस ज़माने में यह बिल्कुल शोभा नहीं देता। मेरा कहना है कि अगर कुरान, हदीस उस ज़माने के लिए ज़रूरी था, तो इस ज़माने में उसे लेकर इतनी छेड़-छाड़ की ही भला क्या ज़रूरत है? उस ज़माने की चीज़ उसी जमाने में पड़ी रहने दिया जाए।

(6)


बंगाली संस्कृति को काफी कुछ यूरोपियन कल्चर निगल गई है। दोनों ही अब तक मिल-जुलकर बची हुई थीं। हाँ, यह यूरोपियन कल्चर दैनंदिन थी और बंगाली संस्कृति किसी उत्सव पर्व के लिए सुनिश्चित कर दी गई थी। आजकल यूरोपियन कल्चर में मिलकर जिस संस्कृति ने एक अद्भुत आकार लिया है वह है-इस्लामी. संस्कृति!। हर घर में लोग चाहे रोज़ा रखें या न रखें, लेकिन मेज़ पर इफ्तार ज़रूर सजाया जाता है। और ठीक समय मुताबिक, घर के सदस्य 'इफ्तार' नामक पकवान खाते हैं। इन दिनों इफ़्तार महीने भर के कल्चर में शामिल हो चुका है। इसके साथ संयम का कोई सरोकार नहीं है। मुरमुरे-चने-प्याजू बैगनी की यह संस्कृति जितने गहरे तक हमारी जीवन शैली में प्रवेश कर गई है उससे यह बिल्कुल नहीं लगता कि हममें। वह ताकत मौजूद है कि इस्लाम के मुहरबंद खिड़की-दरवाजों को भेदकर, घर और। अंतर तक, दुनिया की रोशनी हवा दाखिल करा सकें।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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